गीता जी का ज्ञान किसने बोला?
गीता जी का ज्ञान किसने बोला?
🙏🙏 पवित्र गीता जी का ज्ञान किसने कहा 🙏🙏
पवित्र गीता जी के ज्ञान को उस समय बोला गया था जब महाभारत का युद्ध होने जा रहा था। अर्जुन ने युद्ध करने से इन्कार कर दिया था। युद्ध क्यों हो रहा था? इस युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी नहीं दी जा सकती क्योंकि दो परिवारों का सम्पत्ति वितरण का विषय था। कौरवों तथा पाण्डवों का सम्पत्ति बंटवारा नहीं हो रहा था। कौरवों ने पाण्डवों को आधा राज्य भी देने से मना कर दिया था। दोनों पक्षों का बीच-बचाव करने के लिए प्रभु श्री कृष्ण जी तीन बार शान्ति दूत बन कर गए। परन्तु दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी जिद्द पर अटल थे। श्री कृष्ण जी ने युद्ध से होने वाली हानि से भी परिचित कराते हुए कहा कि न जाने कितनी बहन विधवा होंगी ? न जाने कितने बच्चे अनाथ होंगे ? महापाप के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलेगा। युद्ध में न जाने कौन मरे, कौन बचे ? तीसरी बार जब श्री कृष्ण जी समझौता करवाने गए तो दोनों पक्षों ने अपने-अपने पक्ष वाले राजाओं की सेना सहित सूची पत्रा दिखाया तथा कहा कि इतने राजा हमारे पक्ष में हैं तथा इतने हमारे पक्ष में। जब श्री कृष्ण जी ने देखा कि दोनों ही पक्ष टस से मस नहीं हो
रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी (क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैं होऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछ विचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा।
पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हंे चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में आ जाऐं। इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। श्री कृष्ण जी ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए।
आओ विचार करें:- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवत्र्त हुआ हूँ। श्री कृष्ण जी काल नहीं थे, उनके दर्शन मात्रा से मनुष्य, पशु (गाय आदि) प्रसन्न होकर श्री कृष्ण जी के पास आकर प्यार पाते थे। जिनके दर्शन बिना गोपियों का खाना, पीना छूट जाता था। इसलिए काल कोई और शक्ति है। वह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान बोला
फिर श्री कृष्ण जी में प्रवेश काल बार-बार कह रहे हैं कि अर्जुन कायर मत बन, युद्ध कर। या तो युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा, या युद्ध जीत कर पृथ्वी के राज्य को भोगेगा, आदि-आदि कह कर ऐसा भयंकर विनाश करवा डाला जो आज तक के संत-महात्माओं तथा सभ्य लोगों के चरित्र में ढूंढने से भी नहीं मिलता है। तब वे नादान गुरु जी (नीम-हकीम) कहा करते थे कि अर्जुन क्षत्री धर्म को त्याग रहा था। इससे क्षत्रित्व को हानि तथा सुरवीरता का सदा के लिए विनाश हो जाता। अर्जुन को क्षत्राी धर्म पालन करवाने के लिए यह महाभारत का युद्ध श्री कृष्ण जी ने करवाया था। पहले तो मैं उनकी इस नादानों वाली कहानी से चुप हो जाता था, क्योंकि मुझे स्वयं ज्ञान नहीं था।
पुनर् विचार करें:- भगवान श्री कृष्ण जी स्वयं क्षत्राी थे। कंस के वध के उपरान्त श्री अग्रसैन जी ने मथुरा की बाग-डोर अपने दोहते श्री कृष्ण जी को संभलवा दी थी। एक दिन नारद जी ने श्री कृष्ण जी को बताया कि निकट ही एक गुफा में एक सिद्धि युक्त राक्षस राजा मुचकन्द सोया पड़ा है। वह छः महीने सोता है तथा छः महीने जागता है। जागने पर छः महीने युद्ध करता रहता है तथा छः महीने सोने के समय यदि कोई उसकी निन्द्रा भंग कर दे तो मुचकन्द की आँखों से अग्नि बाण छूटते हैं तथा सामने वाला तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, आप सावधान रहना। यह कह कर श्री नारद जी चले गए।
कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को छोटी उम्र में मथुरा के सिंहासन पर बैठा
देख कर एक काल्यवन नामक राजा ने अठारह करोड़ सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण कर दिया। श्री कृष्ण जी ने देखा कि दुश्मन की सेना बहु संख्या में है तथा न जाने कितने सैनिक मृत्यु को प्राप्त होंगे, क्यों न काल्यवन का वध मुचकन्द से करवा दूं। यह विचार कर भगवान श्री कृष्ण जी ने काल्यवन को युद्ध के लिए ललकारा तथा युद्ध छोड़ कर (क्षत्राी धर्म को भूलकर विनाश टालना आवश्यक जानकर) भाग लिये और उस गुफा में प्रवेश किया जिसमें मुचकन्द सोया हुआ था। मुचकन्द के शरीर पर अपना पीताम्बर (पीली चद्दर) डाल कर श्री कृष्ण जी गुफा में गहरे जाकर छुप गए। पीछे-पीछे काल्यवन भी उसी गुफा में प्रवेश कर गया। मुचकन्द को श्री कृष्ण समझ कर मुचकन्द का पैर पकड़ कर घुमा दिया तथा कहा कि कायर तुझे छुपे हुए को थोड़े ही छोडूंगा। पीड़ा के कारण मुचकन्द की निंद्रा भंग हुई, नेत्रों से अग्नि बाण निकलें तथा काल्यवन का वध हुआ। काल्यवन के सैनिक तथा मंत्री अपने राजा के शव को लेकर वापिस चल पड़े। क्योंकि युद्ध में राजा की मृत्यु सेना की हार मानी जाती थी। जाते हुए कह गए कि हम नया राजा नियुक्त करके शीघ्र ही आयेंगे तथा श्री कृष्ण तुझे नहीं छोड़ेंगे।
श्री कृष्ण जी ने अपने मुख्य अभियन्ता (चीफ इन्जिनियर) श्री विश्वकर्मा जी को बुला कर कहा कि कोई ऐसा स्थान खोजो, जिसके तीन तरफ समुद्र हो तथा एक ही रास्ता (द्वार) हो। वहाँ पर अति शीर्घ एक द्वारिका (एक द्वार वाली) नगरी बना दो। हम शीर्घ ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे। ये मूर्ख लोग यहाँ चैन से नहीं जीने देंगे। श्री कृष्ण जी इतने नेक आत्मा तथा युद्ध विपक्षी थे कि अपने क्षत्रीत्व को भी दाव पर रख कर युद्ध को टाला। क्या फिर वही श्री कृष्ण जी अपने प्यारे साथी व संबंधी को युद्ध करने की बुरी सलाह दे सकते हैं तथा स्वयं युद्ध न करने का वचन करने वाले दूसरे को युद्ध की प्रेरणा दे सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। भगवान श्री कृष्ण रूप में स्वयं श्री विष्णु जी ही अवतार धार कर आए थे।
एक समय श्री भृगु ऋषि ने आराम से बैठे भगवान श्री विष्णु जी (श्री कृष्ण जी) के सीने में लात घात किया। श्री विष्णु जी ने श्री भृगु ऋषि जी के पैर को सहलाते हुए कहा कि ‘हे ऋषिवर ! आपके कोमल पैर को कहीं चोट तो नहीं आई, क्योंकि मेरा सीना तो कठोर पत्थर जैसा है।‘ यदि श्री विष्णु जी (श्री कृष्ण जी) युद्ध प्रिय होते तो सुदर्शन चक्र से श्री भृगु जी के इतने टुकड़े कर सकते थे कि गिनती न होती।
वास्तविकता यह है कि काल भगवान जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का प्रभु है, उसने प्रतिज्ञा की है कि मैं अपने शरीर में व्यक्त(मानव सदृश अपने वास्तविक) रूप में सबके सामने नहीं आऊँगा। उसी ने सूक्ष्म शरीर बना कर प्रेत की तरह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके पवित्र गीता जी का ज्ञान तो सही (वेदों का सार) कहा, परन्तु युद्ध करवाने के लिए अटकल बाजी में भी कसर नहीं छोड़ी। काल (ब्रह्म) कौन है? यह जानने के लिए पढि़ए सृष्टी रचना इसी पुस्तक ‘‘ज्ञान गंगा’’ के पृष्ठ 20 से 65 तक। अधिक जानकारी के लिए आप पुस्तक ज्ञान गंगा पढे या जीने की राह
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https://www.jagatgururampalji.org/gyan_ganga_hindi.pdf
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रहे हैं, युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। तब श्री कृष्ण जी ने सोचा कि एक दाव और है वह भी आज लगा देता हूँ। श्री कृष्ण जी ने सोचा कि कहीं पाण्डव मेरे सम्बन्धी होने के कारण अपनी जिद्द इसलिए न छोड़ रहे हों कि श्री कृष्ण हमारे साथ हैं, विजय हमारी ही होगी (क्योंकि श्री कृष्ण जी की बहन सुभद्रा जी का विवाह श्री अर्जुन जी से हुआ था)। श्री कृष्ण जी ने कहा कि एक तरफ मेरी सर्व सेना होगी और दूसरी तरफ मैं होऊँगा और इसके साथ-साथ मैं वचन बद्ध भी होता हूँ कि मैं हथियार भी नहीं उठाऊँगा। इस घोषणा से पाण्डवों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। उनको लगा कि अब हमारी पराजय निश्चित है। यह विचार कर पाँचों पाण्डव यह कह कर सभा से बाहर गए कि हम कुछ विचार कर लें। कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को सभा से बाहर आने की प्रार्थना की। श्री कृष्ण जी के बाहर आने पर पाण्डवों ने कहा कि हे भगवन् ! हमें पाँच गाँव दिलवा दो। हम युद्ध नहीं चाहते हैं। हमारी इज्जत भी रह जाएगी और आप चाहते हैं कि युद्ध न हो, यह भी टल जाएगा।
पाण्डवों के इस फैसले से श्री कृष्ण जी बहुत प्रसन्न हुए तथा सोचा कि बुरा समय टल गया। सभा में केवल कौरव तथा उनके समर्थक शेष थे। श्री कृष्ण जी ने कहा दुर्योधन युद्ध टल गया है। मेरी भी यह हार्दिक इच्छा थी। आप पाण्डवों को पाँच गाँव दे दो, वे कह रहे हैं कि हम युद्ध नहीं चाहते। दुर्योधन ने कहा कि पाण्डवों के लिए सुई की नोक तुल्य भी जमीन नहीं है। यदि उन्हंे चाहिए तो युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र के मैदान में आ जाऐं। इस बात से श्री कृष्ण जी ने नाराज होकर कहा कि दुर्योधन तू इंसान नहीं शैतान है। कहाँ आधा राज्य और कहाँ पाँच गाँव? मेरी बात मान ले, पाँच गाँव दे दे। श्री कृष्ण से नाराज होकर दुर्योधन ने सभा में उपस्थित योद्धाओं को आज्ञा दी कि श्री कृष्ण को पकड़ो तथा कारागार में डाल दो। आज्ञा मिलते ही योद्धाओं ने श्री कृष्ण जी को चारों तरफ से घेर लिया। श्री कृष्ण जी ने अपना विराट रूप दिखाया। जिस कारण सर्व योद्धा और कौरव डर कर कुर्सियों के नीचे घुस गए तथा शरीर के तेज प्रकाश से आँखें बंद हो गई। श्री कृष्ण जी वहाँ से निकल गए।
आओ विचार करें:- उपरोक्त विराट रूप दिखाने का प्रमाण संक्षिप्त महाभारत गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित में प्रत्यक्ष है। जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पवित्र गीता जी का ज्ञान सुनाते समय अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘अर्जुन मैं बढ़ा हुआ काल हूँ। अब सर्व लोकों को खाने के लिए प्रकट हुआ हूँ।‘ जरा सोचें कि श्री कृष्ण जी तो पहले से ही श्री अर्जुन जी के साथ थे। यदि पवित्र गीता जी के ज्ञान को श्री कृष्ण जी बोल रहे होते तो यह नहीं कहते कि अब प्रवत्र्त हुआ हूँ। श्री कृष्ण जी काल नहीं थे, उनके दर्शन मात्रा से मनुष्य, पशु (गाय आदि) प्रसन्न होकर श्री कृष्ण जी के पास आकर प्यार पाते थे। जिनके दर्शन बिना गोपियों का खाना, पीना छूट जाता था। इसलिए काल कोई और शक्ति है। वह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रेतवत प्रवेश करके पवित्र श्रीमद्भगवत गीता जी का ज्ञान बोला
फिर श्री कृष्ण जी में प्रवेश काल बार-बार कह रहे हैं कि अर्जुन कायर मत बन, युद्ध कर। या तो युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा, या युद्ध जीत कर पृथ्वी के राज्य को भोगेगा, आदि-आदि कह कर ऐसा भयंकर विनाश करवा डाला जो आज तक के संत-महात्माओं तथा सभ्य लोगों के चरित्र में ढूंढने से भी नहीं मिलता है। तब वे नादान गुरु जी (नीम-हकीम) कहा करते थे कि अर्जुन क्षत्री धर्म को त्याग रहा था। इससे क्षत्रित्व को हानि तथा सुरवीरता का सदा के लिए विनाश हो जाता। अर्जुन को क्षत्राी धर्म पालन करवाने के लिए यह महाभारत का युद्ध श्री कृष्ण जी ने करवाया था। पहले तो मैं उनकी इस नादानों वाली कहानी से चुप हो जाता था, क्योंकि मुझे स्वयं ज्ञान नहीं था।
पुनर् विचार करें:- भगवान श्री कृष्ण जी स्वयं क्षत्राी थे। कंस के वध के उपरान्त श्री अग्रसैन जी ने मथुरा की बाग-डोर अपने दोहते श्री कृष्ण जी को संभलवा दी थी। एक दिन नारद जी ने श्री कृष्ण जी को बताया कि निकट ही एक गुफा में एक सिद्धि युक्त राक्षस राजा मुचकन्द सोया पड़ा है। वह छः महीने सोता है तथा छः महीने जागता है। जागने पर छः महीने युद्ध करता रहता है तथा छः महीने सोने के समय यदि कोई उसकी निन्द्रा भंग कर दे तो मुचकन्द की आँखों से अग्नि बाण छूटते हैं तथा सामने वाला तुरन्त मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, आप सावधान रहना। यह कह कर श्री नारद जी चले गए।
कुछ समय उपरान्त श्री कृष्ण जी को छोटी उम्र में मथुरा के सिंहासन पर बैठा
देख कर एक काल्यवन नामक राजा ने अठारह करोड़ सेना लेकर मथुरा पर आक्रमण कर दिया। श्री कृष्ण जी ने देखा कि दुश्मन की सेना बहु संख्या में है तथा न जाने कितने सैनिक मृत्यु को प्राप्त होंगे, क्यों न काल्यवन का वध मुचकन्द से करवा दूं। यह विचार कर भगवान श्री कृष्ण जी ने काल्यवन को युद्ध के लिए ललकारा तथा युद्ध छोड़ कर (क्षत्राी धर्म को भूलकर विनाश टालना आवश्यक जानकर) भाग लिये और उस गुफा में प्रवेश किया जिसमें मुचकन्द सोया हुआ था। मुचकन्द के शरीर पर अपना पीताम्बर (पीली चद्दर) डाल कर श्री कृष्ण जी गुफा में गहरे जाकर छुप गए। पीछे-पीछे काल्यवन भी उसी गुफा में प्रवेश कर गया। मुचकन्द को श्री कृष्ण समझ कर मुचकन्द का पैर पकड़ कर घुमा दिया तथा कहा कि कायर तुझे छुपे हुए को थोड़े ही छोडूंगा। पीड़ा के कारण मुचकन्द की निंद्रा भंग हुई, नेत्रों से अग्नि बाण निकलें तथा काल्यवन का वध हुआ। काल्यवन के सैनिक तथा मंत्री अपने राजा के शव को लेकर वापिस चल पड़े। क्योंकि युद्ध में राजा की मृत्यु सेना की हार मानी जाती थी। जाते हुए कह गए कि हम नया राजा नियुक्त करके शीघ्र ही आयेंगे तथा श्री कृष्ण तुझे नहीं छोड़ेंगे।
श्री कृष्ण जी ने अपने मुख्य अभियन्ता (चीफ इन्जिनियर) श्री विश्वकर्मा जी को बुला कर कहा कि कोई ऐसा स्थान खोजो, जिसके तीन तरफ समुद्र हो तथा एक ही रास्ता (द्वार) हो। वहाँ पर अति शीर्घ एक द्वारिका (एक द्वार वाली) नगरी बना दो। हम शीर्घ ही यहाँ से प्रस्थान करेंगे। ये मूर्ख लोग यहाँ चैन से नहीं जीने देंगे। श्री कृष्ण जी इतने नेक आत्मा तथा युद्ध विपक्षी थे कि अपने क्षत्रीत्व को भी दाव पर रख कर युद्ध को टाला। क्या फिर वही श्री कृष्ण जी अपने प्यारे साथी व संबंधी को युद्ध करने की बुरी सलाह दे सकते हैं तथा स्वयं युद्ध न करने का वचन करने वाले दूसरे को युद्ध की प्रेरणा दे सकते हैं? अर्थात् कभी नहीं। भगवान श्री कृष्ण रूप में स्वयं श्री विष्णु जी ही अवतार धार कर आए थे।
एक समय श्री भृगु ऋषि ने आराम से बैठे भगवान श्री विष्णु जी (श्री कृष्ण जी) के सीने में लात घात किया। श्री विष्णु जी ने श्री भृगु ऋषि जी के पैर को सहलाते हुए कहा कि ‘हे ऋषिवर ! आपके कोमल पैर को कहीं चोट तो नहीं आई, क्योंकि मेरा सीना तो कठोर पत्थर जैसा है।‘ यदि श्री विष्णु जी (श्री कृष्ण जी) युद्ध प्रिय होते तो सुदर्शन चक्र से श्री भृगु जी के इतने टुकड़े कर सकते थे कि गिनती न होती।
वास्तविकता यह है कि काल भगवान जो इक्कीस ब्रह्मण्ड का प्रभु है, उसने प्रतिज्ञा की है कि मैं अपने शरीर में व्यक्त(मानव सदृश अपने वास्तविक) रूप में सबके सामने नहीं आऊँगा। उसी ने सूक्ष्म शरीर बना कर प्रेत की तरह श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके पवित्र गीता जी का ज्ञान तो सही (वेदों का सार) कहा, परन्तु युद्ध करवाने के लिए अटकल बाजी में भी कसर नहीं छोड़ी। काल (ब्रह्म) कौन है? यह जानने के लिए पढि़ए सृष्टी रचना इसी पुस्तक ‘‘ज्ञान गंगा’’ के पृष्ठ 20 से 65 तक। अधिक जानकारी के लिए आप पुस्तक ज्ञान गंगा पढे या जीने की राह
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